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महत्वाकांक्षाओं ने बचपन को भी रियल से रील बना दिया है, क्यों? (1 जून, बाल सुरक्षा दिवस पर विशेष)

बचपन! जीवन की सबसे सुनहरी अवस्था। एकदम अलमस्त...चिंता-फिकर, राग-द्वेष, हार-जीत से दूर। लेकिन आज?...बचपन के मायने बदल गए हैं। अब बचपन यानी...प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, स्टेज और स्टेज की धमक और चमक।
आज अनजाने में मां बाप ही बच्चों का बचपन छीन रहे हैं, समाज में अपनी नाक ऊंची रखने की होड़ में बच्चे उनकी महत्वाकांक्षाओं के बीच मोहरा बनकर रह गये हैं। हर दिन, हर घंटे टीवी चैनलों पर प्रसारित होते रियलिटी शोज ने बच्चों का बचपन भी रियल से रील बना दिया है।...और इस रील के डायरेक्टर बन बैठे हैं उनके अपने मां-बाप, जो छोटे-छोटे बच्चों को लेकर घंटों आॅडिशन के लिए बैठे रहते हैं। कई बार तो कड़ी धूप में सुबह से शाम और फिर शाम से रात कर दी जाती है। कोई नहीं पूछता कि बच्चे ने कहाँ लघुशंका की, कहाँ खाया-पिया। जिन्हें देखभाल करनी चाहिए, वे खुद ही बच्चों को सताते हैं तो दूसरे कहां तक ख्याल रख सकते हैं। लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि इन रियलिटी शोज तक पहुंचने के लिए, यानी उसकी तैयारी करने तक उन बच्चों पर कितना कहर बरपा होगा, जरा सोचिए?
अभी एक शो में सैकड़ों बच्चे आडिशन से रह गए, तो उनके मां-बाप ने हंगामा मचा दिया। नतीजतन शो के आयोजकों को देर रात तक आॅडिशन लेने पड़े। बच्चों ने देर रात तक आॅडिशन दिए। आॅडिशन में चयन ना होने पर एक बालमन पर क्या गुजरती है, यह भी ये रियलिटी शोज दिखाते हैं, वे दिखाते हैं कि कैसे अनसलेक्टेड बच्चा स्टेज पर फूट-फूटकर रो रहा है। इससे वो क्या दिखाना चाहते हैं?...और इससे मां-बाप क्या सबक लेते हैं? यह एक सोचने का विषय है।
आडिशन में नाकाम होने वाले बच्चे ऐसे रोते हैं जैसे जिंदगी ही खत्म हो गई है और आॅडिशन में चुन लिए गए बच्चे इस तरह चिल्लाकर खुशी जाहिर करते हैं, मानो जिंदगी का लक्ष्य मिल गया हो। नाकाम बच्चों के आँसू दिखाए जाते हैं, जिन्हें देखकर नाकाम रहने वाले बच्चे और गहरी उदासी में चले जाते हैं और कुंठाग्रस्त हो जाते हैं।...और कुंठाग्रस्त बच्चा बड़ा होकर भला अपना या समाज का क्या भला कर सकता है, वो तो बचपन में ही मानसिक रूप से समाज के खिलाफ कर दिया जाता है।
छोटी उम्र के बच्चों को मॉडलिंग और टीवी सीरियल में सताए जाने के खिलाफ एक अभियान चला भी था। मगर यह सिर्फ मंत्रालयों के पत्रों और बयानों तक सिमटकर रह गया।...मगर अब आवश्यक्ता है दर्शक वर्ग को जागने की, अब दर्शकों को ही कुछ सोचना होगा, नहीं तो रियलिटी शोज कब रियल जिन्दगी में आ धमकेगें, पता भी नहीं चलेगा। दर्शकों को चाहिए कि ऐसे शोज को बढ़ावा ना दें जिनमें अप्रत्यक्षरूप से ही सही, बच्चों पर अत्याचार होता हो।
ध्यान रहे, ऐसे शोज महज टीआरपी पर टिके होते हैं, जो दर्शकों के देखे जाने की गणना करती है, यानी आप ऐसे धारावाहिक या शो नहीं देखेगें तो वो ज्यादा दिन नहीं चल पायेगें।
मेरी राय में तो ऐसे शोज की तैयारी भी बालश्रम के अन्तर्गत ही आनी चाहिए क्योंकि यह सब भी नाम और पैसे के लिए ही होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि गरीब का बच्चा सीधा-सीधा श्रम करता दिखाई देता है जबकि पढ़े-लिखे और अमीर का बच्चा अपरोक्ष रूप से बालश्रम को भोगता है।

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