मैं पंछी उन्मुक्त गगन का
जहां चाहा चला जाता हूं
क्या रोकेगा, कौन रोकेगा
हर दीवार लांघ जाता हू
मेरी कोई एक राह नहीं
जहां चाहा घूम आता हू
मस्त प्रेमी भंवरे की तरह
मैं डाल-डाल पर जाता हूं
करता हूं रसपान कली का
फूल-फूल मंडराता हूं
अपनी ही मस्ती में मस्त
झूम-झूमकर जब राग सुनाता हूं
खिल उठती है कली कली
रोम रोम में मैं बस जाता हूं
‘मन’ हू मैं अपने ही मन में
ख्वाबों के फूल खिलाता हूं
मैं पंछी उम्मुक्त गगन का.....।
very good....
जवाब देंहटाएं