किस्मत तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते
... कहते हैं हाथों की लकीरों पर भरोसा मत कर, किस्मत तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते। जी हां, इस कथनी को करनी में बदल दिया है राजस्थान की कोटपूतली तहसील के नारेहड़ा गांव की 14 वर्षीय मुखला सैनी ने। मुखला को कुदरत ने जन्म से ही हाथ नहीं दिये, लेकिन मुखला का हौसला, जज्बा और हिम्मत देखिए, उसने ‘करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान’ कहावत को भी चरितार्थ कर दिखाया है, अब वह अपने पैरों की सहायता से वह सब कार्य करती है जो उसकी उमz के अन्य सामान्य बच्चे करते हैं।
कुदरत ने मुखला को सब कुछ तो दिया, लेकिन जीवन के जरूरी काम-काज के लिए दो हाथ नहीं दिये। बिना हाथों के जीवन की कल्पना करना भी बहुत कठिन है, लेकिन मुखला ने इसे अपनी नियति मान कर परिस्थितियों से समझौता कर लिया है। हाथ नहीं होने पर अब वह पैरों से अपने सारे काम करने लग गई है। पढ़ने की ललक के चलते मुखला पैरों से लिखना सीख गई है और आठवीं कक्षा में पहुंच गई है। मुखला को पैरों से लिखते देखकर हाथ वालों को भी कुछ कर दिखाने की प्रेरणा लेनी चाहिए।14 वर्षीया मुखला एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है। उसके माता-पिता मजदूरी कर जीवन-यापन करते हैं। ईश्वर ने जब मुखला के शरीर की रचना की होगी, तो शायद दोनों कंधों के आगे उसके हाथ बनाना भूल गया होगा। उपर वाले की इसी भूल को मुखला को अब जीवन भर भुगतना है।
बहरहाल, बड़ी होने पर मुखला गांव के अन्य बच्चों के साथ स्कूल जाने लगी। दूसरे बच्चों को हाथ से लिखते देखकर उसने हिम्मत नहीं हारी और पैरों से लिखने का प्रयास करने लगी। अपनी लगन और परिश्रम से मुखला ठीक तरह से लिखना सीख गई है। इतना ही नहीं वह पैरांे से ही खाना खाती है। खाना खाने के लिए उसे पैरों से ही रोटी का कोर तोड़ना होता है और फिर उसे सब्जी में डुबोकर मुंह तक पहुंचाना, सचमुच आप और हमारे लिए यह किसी कौतुहल से कम नहीं, लेकिन मुखला के लिए यह सिर्फ ‘रोजमर्रा का एक काम है जिसे करना है’ से ज्यादा कुछ नहीं।...आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुखला के हाथ नहीं होते हुए भी उसमें स्वावलम्बन व जिम्मेदारी का जज्बा कूट-कूटकर भरा है। मुखला की मां बताती है कि मुखला अपने नहाने की बाल्टी भी पास के हैंडपंप से खुद भरकर, पकड़कर लाती है। घर में झाडू और पोंचा तक लगा लेती है।...लेकिन अब बेबस है तो सिर्फ सरकार के आगे...मुखला के परिवार एवं गुरूजनों का कहना है कि ‘आम आदमी को जिंदगी जीना सीखाती’ इस नन्ही बालिका को अब तक किसी प्रकार की कोई सरकारी सहायता या हौसलाअफजाई नहीं मिल पाई है। आठवीं में आते-आते अब मुखला के परिवारजनों को भी चिंता सताने लगी है कि संसाधनों के अभाव में वे मुखला को आगे कैसे पढ़ा पाएगें जबकि मुखला पढ़ने में बहुत होशियार है और वह आगे पढ़ना चाहती है।
कीचड़ भरा रास्ता पार करके पैदल जाती है मुखला स्कूल
मुखला की ढ़ाणी के रास्ते में भरा कीचड़ व फिसलन भी उसके हौसले को फिसला नहीं पाये हैं। वह रोजाना यह सब बड़ी ढृढ़ता से पार करते हुए पैदल ही अपने विद्यालय ‘विवेकानंद सी. सैकण्डरी स्कूल’ जाती है। इस बात की पुष्टि मुखला की स्कूल के प्रिंसिपल रतल लाल भी करते हैं कि मुखला को अब तक कोई सरकारी सहायता नहीं मिल रही है, लेकिन यहां स्कूल में मुखला को नि:शुल्क शिक्षा दी जा रही है। मुखला इस स्कूल में बचपन से पढ़ रही है और उसने सब कुछ यहीं सीखा है।
bhut acha lekh h...
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