किसी भी समाज या देश का विकास उसकी शिक्षा पर निर्भर होता है। भारत सरकार ने भी इस क्षेत्र में एक सराहनीय कदम उठाते हुए 1 अप्रैल 2010 से 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (आरटीआई)का प्रावधान किया है।
कोई भी अधिनियम बनाना एक बात है और उसे असरदार व प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाना एक अलग बात है। आज अगर हम सरकारी स्कूलोंं के हालतों पर गौर करें तो पायेगें कि हमारी स्कूलों की दशा कितनी खराब है।...फोटो में दिए गये अखबारों की कतरनों से ही साफ जाहिर हो रहा है कि असल में हो क्या रहा है?
प्रदेश में शिक्षकों की स्थिति पर एक नजर....
पदनाम स्वीकृत कार्यरत रिक्त
व्याख्याता 19575 11230 8345
वरि.अध्यापक 37438 29934 7514
अध्यापक 12583 10478 2105
द्वित्तिय श्रेणी 31913 22824 9089
तृतीय श्रेणी 230153 177123 53030
प्रबोधक 28673 23141 5532
इसके अलावा नवक्रमोन्नत माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालयों में अभी पदों की स्वीकृति ही नहीं मिल पायी है और हालात ये हैं कि स्कूल 10वीं तक हो गया लेकिन वहां अभी भी तृतीय श्रेणी शिक्षक ही अध्यापन कार्य करवा रहे हैं और उनकी भी कई स्कूलों में तो संख्या वही है जो उच्च प्राथमिक विद्यालय के समय थी। सच्चाई यह है कि बहुत से स्कूल जो 8वीं या 10वीं कक्षा के स्तर के हैं आज भी 3 या 5 अध्यापकों के भरोसे चल रहे हैं। विषयाध्यापकों के तो कोई ठिकाने ही नहीं हैं। आज भी 9वीं व 10वीं के छात्रों को विज्ञान, अंग्रेजी व गणित जैसे विषय वही तृतीय श्रेणी अध्यापक ही पढ़ा रहे हैं तो हम सोच सकते हैं कि हमारे छात्र-छात्राओं को कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही होगी। इसे बच्चों के भविष्य के साथ सरासर खिलवाड़ नहीं तो और क्या कहें? पिछले 6-7 महीने से हमारे शिक्षामंत्री समानीकरण की कवायद में जुटे हुए थे, उससे (समानीकरण) कुछ फर्क पड़ा या नहीं यह अलग बात है लेकिन मेरे विचार में तो सरकार का समानीकरण का फामूला ही त्रृटिपूर्ण यानी खामीयुक्त था।
फार्मूले का आधार छात्र संख्या रखी गयी थी ना कि कक्षाओं की संख्या। उदाहरण के तौर पर 1 से 8वीं तक की स्कूल में अगर 150 तक छात्रों की संख्या है तो पांच अध्यापक होंगे तथा 151 से 200 हैं तो 6 अध्यापक होगेंं। इसमें सोचने वाली बात यह है कि 150 छात्रों में भी कक्षाऐं तो आठ ही होंगी।...तो एक कक्षा के लिए एक शिक्षक तो चाहिए ही, अब उसमें छात्र संख्या 20 हो या 12, इससे क्या फर्क पड़ता हैै? सरकार आठवीं तक के स्कूल में 5 अध्यापक लगा रही है, हर किसी के समझ में आता है कि एक समय में एक अध्यापक एक ही कक्षा को पढ़ा सकेगा, तो बाकी तीन कक्षाओं का क्या होगा?...पता नहीं क्यों ये सीधा सा गणित हमारे नीति निर्धारकों के दिमाग में नहीं आया? इसमें भी कोढ़ मंे खाज का काम तब होता है जब अशैक्षिणिक कार्यों के लिए अध्यापकों की ड्यूटी लगा दी जाती है। कभी जनगणना तो कभी चाइल्ड ट्रेकिंग सर्वे, तो कभी मतदान, कभी पल्स पोलियो।..हर काम में अध्यापक ही नजर आते हैंं।
जब तक सरकारी स्कूलों में पर्याप्त अध्यापक उपलब्ध नहीं होगें, शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर सुधारा जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के कारण ही औसत आय वाले माता पिता अपने बच्चों को उन सस्ते निजी स्कूलों में भर्ती कराने को मजबूर हैं जो सरकारी स्कूलों से बेहतर नहीं होते हुए भी सिर्फ एक बिन्दु के लिए बेहतर हैं वह यह कि उनके वहां कम से कम हर कक्षा के लिए एक अध्यापक तो है चाहे वह मात्र 10वीं या 12वीं पास ही क्यों ना हो। नये कानून के प्रभावी होने से इन सस्ते निजी स्कूूलों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा, क्योंििक अधिनियम के मापदण्डों को पूरा करने के लिए न तो उनके पास अच्छा स्कूल भवन है और ना ही खेल का मैदान है और ना ही वे प्रशिक्षित शिक्षक रखते हैं और ना ही प्रशिक्षित शिक्षकों को निर्धारित वेतन दे पाते हैं। हर शहर, कस्बे, यहां तक की गांवों में आज सस्ते निजी स्कूल गली गली में चल पड़े हैं वो भी रिहायशी मकानों में। ...और यह सब इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि हमारी सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता उनसे भी खराब है, वहां बच्चों की कक्षा में अध्यापक दिखाई ही नहीं देते। और सरकार ने नई भर्ती करके अध्यापकों की पूर्ती करने की बजाय संख्या बल पर समानीकरण करके पूरे प्रदेश की बहुत सी स्कूलां में अध्यापक सरप्लस दिखा दिए जबकि वहां तो पहले से ही कमी हैै। अब अगर अधिनियम के दवाब से निजी स्कूल भी बंद हुए तो क्या स्थिति होगी, सोचने का विषय है।
गांव के स्कूलों पर आधारित स्कूली शिक्षा की रिर्पोट ‘असर 2009’ के मुताबिक देश के ग्रामीण स्कूलों में अभी भी 50 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो अपेक्षित स्तर से तीन कक्षा नीचे के स्तर पर हैं। यानी कक्षा आठ में पढ़ने वाले आधे बच्चों की लिखने पढ़ने की क्षमता कक्षा पांच के बराबर है और इसका मूल कारण है शिक्षकों की कमी।
यदि इस अधिनियम को वास्तव में प्रभावी बनाना है तो सरकार को सबसे पहले शिक्षकों की पूर्ती करनी होगी और उसके बाद अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए दूसरे मजबूत कदम उठाने पड़ेगें अन्यथा यह अधिनियम भी बेअसर हो जाएगा और बच्चों के भविष्य के साथ यह बहुत बड़ा खिलवाड़ होगा।
...मैं चाहूंगा कि अभिभावक वर्ग भी इसके बारे में सोचे और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों को स्कूलों में आवश्यक सुविधाऐं व शिक्षक उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक कदम उठाने को प्रेरित करें साथ ही आप अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति कितने जागरूक हैं और सरकारी विद्यालयों में और क्या अच्छा होना चाहिए, अपने सुझाव एवं विचारों से मुझे अवश्य अवगत करायें।
कोई भी अधिनियम बनाना एक बात है और उसे असरदार व प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाना एक अलग बात है। आज अगर हम सरकारी स्कूलोंं के हालतों पर गौर करें तो पायेगें कि हमारी स्कूलों की दशा कितनी खराब है।...फोटो में दिए गये अखबारों की कतरनों से ही साफ जाहिर हो रहा है कि असल में हो क्या रहा है?
प्रदेश में शिक्षकों की स्थिति पर एक नजर....
पदनाम स्वीकृत कार्यरत रिक्त
व्याख्याता 19575 11230 8345
वरि.अध्यापक 37438 29934 7514
अध्यापक 12583 10478 2105
द्वित्तिय श्रेणी 31913 22824 9089
तृतीय श्रेणी 230153 177123 53030
प्रबोधक 28673 23141 5532
इसके अलावा नवक्रमोन्नत माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालयों में अभी पदों की स्वीकृति ही नहीं मिल पायी है और हालात ये हैं कि स्कूल 10वीं तक हो गया लेकिन वहां अभी भी तृतीय श्रेणी शिक्षक ही अध्यापन कार्य करवा रहे हैं और उनकी भी कई स्कूलों में तो संख्या वही है जो उच्च प्राथमिक विद्यालय के समय थी। सच्चाई यह है कि बहुत से स्कूल जो 8वीं या 10वीं कक्षा के स्तर के हैं आज भी 3 या 5 अध्यापकों के भरोसे चल रहे हैं। विषयाध्यापकों के तो कोई ठिकाने ही नहीं हैं। आज भी 9वीं व 10वीं के छात्रों को विज्ञान, अंग्रेजी व गणित जैसे विषय वही तृतीय श्रेणी अध्यापक ही पढ़ा रहे हैं तो हम सोच सकते हैं कि हमारे छात्र-छात्राओं को कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही होगी। इसे बच्चों के भविष्य के साथ सरासर खिलवाड़ नहीं तो और क्या कहें? पिछले 6-7 महीने से हमारे शिक्षामंत्री समानीकरण की कवायद में जुटे हुए थे, उससे (समानीकरण) कुछ फर्क पड़ा या नहीं यह अलग बात है लेकिन मेरे विचार में तो सरकार का समानीकरण का फामूला ही त्रृटिपूर्ण यानी खामीयुक्त था।
फार्मूले का आधार छात्र संख्या रखी गयी थी ना कि कक्षाओं की संख्या। उदाहरण के तौर पर 1 से 8वीं तक की स्कूल में अगर 150 तक छात्रों की संख्या है तो पांच अध्यापक होंगे तथा 151 से 200 हैं तो 6 अध्यापक होगेंं। इसमें सोचने वाली बात यह है कि 150 छात्रों में भी कक्षाऐं तो आठ ही होंगी।...तो एक कक्षा के लिए एक शिक्षक तो चाहिए ही, अब उसमें छात्र संख्या 20 हो या 12, इससे क्या फर्क पड़ता हैै? सरकार आठवीं तक के स्कूल में 5 अध्यापक लगा रही है, हर किसी के समझ में आता है कि एक समय में एक अध्यापक एक ही कक्षा को पढ़ा सकेगा, तो बाकी तीन कक्षाओं का क्या होगा?...पता नहीं क्यों ये सीधा सा गणित हमारे नीति निर्धारकों के दिमाग में नहीं आया? इसमें भी कोढ़ मंे खाज का काम तब होता है जब अशैक्षिणिक कार्यों के लिए अध्यापकों की ड्यूटी लगा दी जाती है। कभी जनगणना तो कभी चाइल्ड ट्रेकिंग सर्वे, तो कभी मतदान, कभी पल्स पोलियो।..हर काम में अध्यापक ही नजर आते हैंं।
जब तक सरकारी स्कूलों में पर्याप्त अध्यापक उपलब्ध नहीं होगें, शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर सुधारा जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के कारण ही औसत आय वाले माता पिता अपने बच्चों को उन सस्ते निजी स्कूलों में भर्ती कराने को मजबूर हैं जो सरकारी स्कूलों से बेहतर नहीं होते हुए भी सिर्फ एक बिन्दु के लिए बेहतर हैं वह यह कि उनके वहां कम से कम हर कक्षा के लिए एक अध्यापक तो है चाहे वह मात्र 10वीं या 12वीं पास ही क्यों ना हो। नये कानून के प्रभावी होने से इन सस्ते निजी स्कूूलों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा, क्योंििक अधिनियम के मापदण्डों को पूरा करने के लिए न तो उनके पास अच्छा स्कूल भवन है और ना ही खेल का मैदान है और ना ही वे प्रशिक्षित शिक्षक रखते हैं और ना ही प्रशिक्षित शिक्षकों को निर्धारित वेतन दे पाते हैं। हर शहर, कस्बे, यहां तक की गांवों में आज सस्ते निजी स्कूल गली गली में चल पड़े हैं वो भी रिहायशी मकानों में। ...और यह सब इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि हमारी सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता उनसे भी खराब है, वहां बच्चों की कक्षा में अध्यापक दिखाई ही नहीं देते। और सरकार ने नई भर्ती करके अध्यापकों की पूर्ती करने की बजाय संख्या बल पर समानीकरण करके पूरे प्रदेश की बहुत सी स्कूलां में अध्यापक सरप्लस दिखा दिए जबकि वहां तो पहले से ही कमी हैै। अब अगर अधिनियम के दवाब से निजी स्कूल भी बंद हुए तो क्या स्थिति होगी, सोचने का विषय है।
गांव के स्कूलों पर आधारित स्कूली शिक्षा की रिर्पोट ‘असर 2009’ के मुताबिक देश के ग्रामीण स्कूलों में अभी भी 50 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो अपेक्षित स्तर से तीन कक्षा नीचे के स्तर पर हैं। यानी कक्षा आठ में पढ़ने वाले आधे बच्चों की लिखने पढ़ने की क्षमता कक्षा पांच के बराबर है और इसका मूल कारण है शिक्षकों की कमी।
यदि इस अधिनियम को वास्तव में प्रभावी बनाना है तो सरकार को सबसे पहले शिक्षकों की पूर्ती करनी होगी और उसके बाद अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए दूसरे मजबूत कदम उठाने पड़ेगें अन्यथा यह अधिनियम भी बेअसर हो जाएगा और बच्चों के भविष्य के साथ यह बहुत बड़ा खिलवाड़ होगा।
...मैं चाहूंगा कि अभिभावक वर्ग भी इसके बारे में सोचे और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों को स्कूलों में आवश्यक सुविधाऐं व शिक्षक उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक कदम उठाने को प्रेरित करें साथ ही आप अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति कितने जागरूक हैं और सरकारी विद्यालयों में और क्या अच्छा होना चाहिए, अपने सुझाव एवं विचारों से मुझे अवश्य अवगत करायें।
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