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बस जरा सी कसर बाकी है

कुछ तो शर्म करो ऐ दुनिया वालों,


बस जरा सी कसर बाकी है,

अब इस दीये में और तेल नहीं,

बस जरा सी बाती बाकी है।

बुझ ना जाये कहीं ये दीया,

पेड़ो पर कुल्हाड़े चलाने से,

नोटों के बंडल खातिर

बावड़ियों के पेदें सुखाने से

क्यों चला रहे हो हथोड़े पहाड़ों पर,

क्यों सूनी ‘मां’ की छाती है,

क्यों गिरती हैं यहां खड़ी इमारतें,

क्यों पल में ‘सुनामी’ आ जाती है।

कुछ तो शर्म करो ऐ दुनिया वालों

बस जरा सी कसर बाकी है

अब इस दीये में और तेल नहीं

बस जरा सी बाती बाकी है।

क्यों खामोश हैं वो हवायें,

जो कभी खुशियों के राग सुनाती थी,

मिलाती थी ताल से ताल ‘बैसाखी’ पर

रंगों के संग इठलाती थी।

क्यों ठहर गयी वो गंगा,

जो कभी आयी फाड़कर ‘मां’ की छाती थी,

क्यों गौ मुख गया है सूख,

क्यों चिड़िया रेत में नहाती है।

कुछ तो शर्म करो ऐ दुनिया वालों

जल रहा है तेल, घट रही है बाती

बस जरा सी कसर बाकी है

टूट चुकी है धरती माता,

हम आदमजात के प्रहारों से,

छलनी हो गयी मां की छाती,

अब क्या ‘इतिहास’ दोहराना बाकी है।

कुछ तो शर्म करो ऐ दुनिया वालो,

बस जरा सी....कसर..बाकी है।

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